इस देहरी पर विश्वासों के
अक्षत बिखरे हैं।
छूते ही इसको हाथों से
मस्तक की रेखा तन जाती
बेघर होती कोई व्यवस्था
पलक झपकते घर बन जाती
इसे लाँघकर कितने ही सर
उन्नत उभरे हैं।
देहरी से दालान जुड़ा था
थी आँगन की फिर चौहद्दी
होली-दीवाली सजती थी
अविनाशी-पुरखों की गद्दी
रंग तो हैं, कुछ अवशेषों पर
हाँ ! चितकबरे हैं।
समय साक्षी है पड़ाव के
परंपरागत अनुशासन का
मर्यादा के तटबंधों में
बहू-बेटियों के बनठन का
स्मृतियों में, अब भी घूँघट के
नटखट नखरे हैं।
इस देहरी ने कुल का शाश्वत
और सनातन सब देखा है
संबंधों के अपनेपन से
यह विघटन तक का लेखा है
पर इसको तो दोनों ही
गत, आगत अखरे हैं।